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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 63 
नारद जी महाराज नहुष को क्या मिले , महाराज की आंखों में स्वर्गाधिपति बनने के स्वप्न घर बनाने लगे । उनके मन में आशाओं के फूल खिलने लगे । अब तक कोई भी मनुष्य जीते जी स्वर्ग लोक में नहीं गया था । यहां तो स्वर्ग लोक के राजा बनने की बात चलने लगी थी । न भूतो न भविष्यति । उनका मुख प्रसन्नता से चमकने लगा । अधरों पे मुस्कान सदैव नृत्य करने लगी । पर वो वक्त कब आयेगा , कौन जाने ? महाराज नहुष को विश्वास हो गया था कि वह वक्त आयेगा अवश्य , क्योंकि वृत्रासुर का वध होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है । वृत्रासुर के पाप इतने बढ़ गये हैं कि सृष्टि के संरक्षण हेतु उसका अंत होना अवंश्यंभावी हो गया है । 

देवराज इंद्र वृत्रासुर के वध के लिए महर्षि दाधीच के पास गये हैं । प्रश्न केवल इतना है कि क्या महर्षि दाधीच देवराज को अपनी अस्थियां दान में देंगे ? कौन अपनी "जान" देना चाहता है ? अस्थियों को दान देने का अर्थ है अपनी मृत्यु का वरण करना । कोई ऐसा क्यों करेगा ? लेकिन महात्मा लोग परमार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं । ऐसा कार्य वे अब तक करते आये हैं । यही उनका "धर्म" है । यदि आत्मोत्सर्ग से देवलोक की रक्षा होती है तो यह महर्षि दाधीच का "धर्म" है । "धर्म" की रक्षा के लिए राजा हरिश्चंद्र ने क्या क्या कष्ट नहीं सहे ? राजा मोरध्वज और उनकी पत्नी ने अपने पुत्र के सिर पर आरा रखकर उसे बीच से चीर दिया था । धर्म की रक्षा के लिए महान लोगों ने महान कार्य किये हैं । महर्षि दाधीच भी कम महान नहीं हैं । जन कल्याण के लिए आत्मोत्सर्ग का अवसर बार बार नहीं आता है । इस अवसर को व्यर्थ कौन जाने देगा ? ऐसे अवसर पर अपना बलिदान देने वाले व्यक्ति ही तो महापुरुष कहलाते हैं । वे भी अपना नाम ऐसे महापुरुषों की सूची में अवश्य लिखवाऐंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है । 

"जब महर्षि दाधीच अपनी अस्थियां दान में दे देंगे तो उनसे वज्र बनाकर वृत्रासुर का वध कर दिया जाएगा और इस प्रकार देवराज इंद्र पर एक ब्रह्म हत्या का पाप और चढ़ जाएगा । ऐसी स्थिति में वे स्वर्गाधिपति कैसे रह सकेंगे ? तब तो किसी अन्य को स्वर्ग का सिंहासन सौंपना ही पड़ेगा क्योंकि सिंहासन कभी रिक्त नहीं रहना चाहिए । इस स्थिति में यदि उनके पास स्वर्गाधिपति बनने का निमंत्रण आयेगा और वे इसे स्वीकार कर लेंगे तो हस्तिनापुर का सम्राट भी ययाति को बनाना होगा । कितना अच्छा लगेगा जब पिता स्वर्ग का अधिपति और पुत्र पृथ्वी का अधिपति होगा । दो "लोक" तो उनके अधीन हो ही जायेंगे । क्या पता कोई ऐसा संयोग बन जाये कि "पाताल लोक" पर भी आधिपत्य करने का अवसर प्राप्त हो जाये तो "सयाति" को वहां का शासक बनाया जा सकता है । जब तीनों लोक अपने अधीन हो जायेंगे तो हम लोग सर्व शक्तिशाली बन जायेंगे" । महाराज नहुष के मस्तिष्क में अनेक विचार आने लगे । "विचार तो बहुत सुंदर है पर एक बार इस विषय पर परिवार में चर्चा तो होनी ही चाहिए जिससे सबका मत ज्ञात हो सके" ।  

राजप्रासाद में इस विषय पर चर्चा करने हेतु महाराज नहुष ने वार्ता प्रारंभ की "आपको क्या लगता है प्रिये कि क्या देवराज इंद्र महर्षि की अस्थियां प्राप्त करने में सफल हो जायेंगे" ? 

महारानी अशोक सुन्दरी तो इस विषय पर वार्ता करना ही नहीं चाहती थीं । यदि महाराज नहुष को स्वर्ग का अधिपति बना दिया गया तो उन्हें पति का वियोग सहन करना होगा । वे अपने पति के साथ स्वर्ग लोक जाना नहीं चाहती थीं क्योंकि अभी तो ययाति का ही विवाह नहीं हुआ था । सबसे छोटा कृति तो अभी 10-12 वर्ष का ही था । बच्चों के प्रति उनका दायित्व अभी समाप्त नहीं हुआ था । ययाति को भी राज्य के प्रशासन का कोई ज्यादा अनुभव नहीं था । ऐसे में दोनों माता पिता में से कम से कम एक व्यक्ति को तो हस्तिनापुर में रुकना ही चाहिए । 

जबसे वृत्रासुर के वध की बात चलने लगी है और महाराज के स्वर्गाधिपति बनने की चर्चा होने लगी है तब से ही उनका हृदय आशंकित रहने लगा है । उन्हें पति से पृथक रहने का दुख सताने लगा था । वे प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना करती थीं कि ऐसी कोई व्यवस्था हो जाये कि महाराज को स्वर्ग लोक नहीं जाना पड़े । महाराज के प्रश्न का वे क्या उत्तर देतीं ? ऐसी स्थिति में वे महाराज का हृदय व्यथित नहीं करना चाहती थीं इसलिए वे कहने लगीं "महर्षि दाधीच की ख्याति तो तीनों लोकों में "परम जन हितैषी" की बनी हुई है । इससे लगता है कि वे अपनी अस्थियां देवराज को अवश्य ही दान में दे देंगे । इसमें मुझे कोई संशय नजर नहीं आ रहा है" । 

महाराज नहुष महारानी के उत्तर से बहुत प्रसन्न हुए । फिर उन्होंने ययाति से पूछा "हमारे युवराज के क्या विचार हैं इस विषय में" ? 
"महाराज , यदि स्वर्ग लोक आपके अधीन हो जाये तो इससे अधिक शुभ समाचार और क्या होगा हस्तिनापुर के लिए । इससे हस्तिनापुर के गौरव में अभिवृद्धि ही होगी और अपने वंश का नाम स्वर्ग लोक में भी स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जा सकेगा । यह बात हम सबके लिए गर्व की होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है" । 

ययाति की बात सुनकर महाराज प्रसन्न हो गये और मन ही मन उसे ढेरों आशीर्वाद दे दिये । उन्होंने सयाति और अयाति दोनों का भी मन टटोला तो दोनों ने एक साथ कहा 
"तात् ! यदि स्वर्ग लोक से अपने पास "देवराज" बनने का प्रस्ताव आता है तो आपको अवश्य ही वहां जाना चाहिए क्योंकि ऐसा अवसर बार बार नहीं आता है । आपको हस्तिनापुर के बारे में अधिक नहीं सोचना चाहिए क्योंकि हस्तिनापुर ज्येष्ठ भ्राता ययाति के अधीन सुरक्षित रहेगा" । 

सबके विचार जानकर महाराज नहुष आनंदित हो गये । महारानी को छोड़कर शेष तीनों सदस्य चाहते थे कि स्वर्ग से ऐसा निमंत्रण शीघ्र आये क्योंकि ऐसा अवसर बार बार नहीं आता है । सब लोग इस अवसर की प्रतीक्षा करने लगे । 

मनुष्य के सोचने मात्र से कुछ नहीं होता है, नियति को जो स्वीकार्य होगा, वही कार्य होगा । नियति भी चाहती थी कि सम्राट नहुष स्वर्ग लोक में अपनी कुशलता का प्रदर्शन करें इसलिए महर्षि दाधीच ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी अस्थियों को  देवराज इंद्र को देने का वचन दे दिया था । अब उन्होंने आत्मोत्सर्ग करने के लिये "ध्यान योग" का सहारा लिया । "ध्यान योग" में "योगी" अपनी समस्त इन्द्रियां, मन व बुद्धि को हृदय में निरुद्ध करके "प्राणों" को आज्ञा चक्र में स्थिर करके "ॐ" अक्षर जो कि परम ब्रह्म है, का केवल मानसिक उच्चारण करते हुए अपने दशम द्वार "ब्रह्म रंध्र" से अपनी देह का त्याग कर देते हैं । देह त्यागने के पश्चात ऐसे योगी सीधे ही "परम धाम" पहुंच जाते हैं । महर्षि दाधीच ने भी इसी पद्धति से अपना शरीर छोड़ दिया और अपना नाम जन कल्याण के लिए आत्मोत्सर्ग करने वालों में लिखवा लिया । देवराज इंद्र ने उन अस्थियों से एक भयानक अस्त्र "वज्र" बनाया और उससे वृत्रासुर का वध कर दिया । 

जैसा नारद जी ने बताया था, वैसा ही हुआ । देवराज इंद्र पर ब्रह्म हत्या का दोष लग गया और उन्हें स्वर्ग के सिंहासन से च्युत होना पड़ा । वे स्वर्ग लोक से विस्थापित होकर इधर उधर छिपने लगे । स्वर्ग लोक के अधिपति अर्थात "देवराज" का सिंहासन रिक्त हो गया और सम्राट नहुष के पास "देवराज" बनने का निमंत्रण लेकर नारद जी का हस्तिनापुर में पदार्पण हुआ । 

नारद जी को अपने राजप्रासाद में देखकर महाराज नहुष अति प्रसन्न हुए । उन्हें नारद जी की भाव भंगिमा से ही ज्ञात हो गया था कि जिस घड़ी की वे प्रतीक्षा कर रहे थे , वह अब आ गई है । उन्होंने ययाति का हस्तिनापुर के सम्राट के रूम में अभिषेक करवाया और ययाति को हस्तिनापुर का सम्राट नियुक्त कर स्वर्ग लोक चले गये । महारानी अशोक सुन्दरी को महाराज नहुष के स्वर्गाधिपति बनने पर अत्यंत हर्ष हुआ किन्तु यह हर्ष उन्हें विरह का विषाद भी दे रहा था । हर्ष और विषाद का संगम बहुत दुर्लभ होता है किन्तु महारानी के हृदय में दोनों प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे थे । 

इस विचित्र घटना ने ययाति को अल्पायु में ही हस्तिनापुर का सम्राट बना दिया था । ययाति के कुशल नेतृत्व में हस्तिनापुर की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैलने लगी थी । 

श्री हरि 
29.7.2023 

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